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सिविल
प्रक्रिया संहिता संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा संशोधन किया गया है। इस धारा में
अधिक संयोधन किया गया होने से यह धारा पूर्णत: नई संशोधित अत: स्थापना की गई है।
इस धरा के अनुसार उच्च न्यायालय सारभूत तथ्य के प्रश्न जिनका विचार विचारण न्यायालय
अथवा अपील न्यायालय में नहीं किया है अथवा गलत किया है, पर द्वितीय अपील में विचार करने हेतु
संक्षम बना दिया गया है। इस धारा में विद्यादक के पश्चात तथ्य शब्द का कम कर
दिया गया है, किंतु फिर भी हय धारा तथ्य संबंधी निष्कर्ष
के विरूद्ध द्वितीय अपील से संबंधित ही मानी गई है।
इस धारा के प्रारंभिक शब्द में तथ्य के विवाद्यक के संबंध में स्पष्ट
उल्लेख है, जिससे तथ्य के आधार पर उच्च न्यायालय द्वितीय
अपील ऐसे समय में की जाना उचित माना गया है, जबकि अवधारण
निम्न एवं प्रारंभिक न्यायालय द्वारा नहीं किया गया हो अथवा जिसका धारा 100 में
निर्दिष्ट विधि के किसी प्रश्न पर विनिश्चय के कारण दोषपूर्ण रीति से अवधारण
किया गया हो। यह धारा 100 की अफवाद है जिसमें यह बताया गया है कि, केवल विधि के प्रश्न और वह भी सारभूत विधि के प्रश्न पर ही द्वितीय अपील
प्रस्तुत की जा सकती है, अत: तथ्य के आधार पर अपील किया
जाना संभव ही नहीं है।
इस धारा में सीमित परिसीमा में ऐसे तथ्य के आधार पर उल्लेख किए गए
है जिन पर अपील सुना जाना संभव है। पूर्व की धारा जिसमे सन 1976 के अधिनियम
क्रमांक 104 द्वारा संशोधन नहीं किया है। यह बात जो लघुवाद न्यायालय द्वारा
प्रसंगेय माने गये उस संबंध में महत्वपूर्ण न्याय-दृष्टांत निम्न प्रकार है।
किंतु बाद में व्यादेश का अनुतोष मांग लिया हो तो वह लघुवाद न्यायालय द्वारा
प्रसंगेय ना होकर उस पर द्वितीय अपील की जाना संभव होगा। अंतरकालीन लाभ की वसूली
का वाद विचारण किया जा सकता है अत: उसे यह धारा प्रभावित करती है।
इस धारा की विषय वस्तु जो 3000 रूपए निश्चित की गई है, वह मूल वाद के पुर्नमूल्यांकन से संबंधित है, डिकी
में यह मूल वाद का मूल्यांकन वाद व्यय एवं ब्याज आदि की राशि जोड़े जाने से
अधिक हो सकता है। किंतु उसका निश्पादन के संबंध में दिनांक 17/06/1992 को इस धारा
के अधीन ही विचार किया जायेगा। क्योंकि मूल वाद का मूल्यांकन रूपयों तक ही था।
डिकी का आकार उपरोक्त बताए अनुसार वाद में अधिक हो जाने पर भी इस धारा पर उसका
कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
इस धारा में यह बताया गया है कि धारा 100 में वर्णित आधार के
अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर द्वितीय अपील संस्थित नहीं की जा सकेगी। जिसक
उद्देश्य केवल धारा 100 के उपबंधों एवं आधारों की पुष्टि करना मात्र है जो आधार
धारा 100 में मात्र द्वितीय अपील के लिए निर्दिष्ट किए गए है , उनके अतिरिक्त और किसी अन्य आधार पर यह निष्कर्ष कि वादी प्रतिवादी का
गोदी पुत्र
इस धारा
का उद्देश्य दोषी व्यक्ति द्वारा अपराध के शिकार व्यक्ति को प्रतिकर देने तथा
अभियोजन में उपगत व्ययों को चुकाने तथा उनकी भर्त्सना करने के लिए समुचित व्यवस्था
करना है। दण्ड न्यायालय का कार्य अपराधी को दण्ड देना और (व्यवहार विषयक सिविल
न्यायालय का कार्य) दोषकर्ता द्वारा विक्षुब्ध पक्षकार को कारित की गई क्षति
अथवा हानि के लिए प्रतिकर दिलवाना है। तथापि यदि इन दोनों प्रक्रियाओं को सम्मिलित
किया जा सकता है उसके फलस्वरूप
और दाण्डिक और व्यवहसर संबंधी आदेशिकाकाए प्रभावित नहीं करती तो ऐसा करना उचित
और स्थकर होगा, क्योकि इससे दो भिन्न न्यायालयों में
उपचार प्राप्त करने में समय और धन दोनो की बचत होगी। धारा 357 इसी लक्ष्य को
लेकर आगे बढ़ती है।
इस धारा के अधीन प्रतिकर का आदेश दिया जा सकता है, चाहे भले ही अपराध जुर्माने से दण्डनीय हो और जुर्माना दिनांक 23/03/2007
से वास्तविक रूप से लगाया गया हो परंतु ऐसे प्रतिकर का आदेश तभी दिया जा सकता है
जब अभियुक्त को दोष मुक्ति प्रदान की गई हो। उसके विरूद्ध दण्डादेश पारित किया
गया हो। प्रतिकर किसी भी हानि या क्षति के लिए देय हो सकता है, चाहे वह शारीरिक हो या अर्थ संबंधी प्रतिकर हो? न्यायालय
को इस निमित्य क्षति की प्रकृति, क्षति की प्रणिति की रीति,
अभियुक्त की भुगतान क्षमता और अन्य प्रासंगिक हेतुकों पर ध्यान
देना चाहिए।
(गिरधारी विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य के मुकदमें में) अभिमत व्यक्त
किया गया था कि धारा 357 के अधीन प्रतिकर देने के आदेश के लिए जुर्माने के मूल दण्डोदश
की प्रणिति एक अपरिहार्य शर्त है। जुर्माने के दण्ड की प्रणिति के बिना यदि न्यायालय
राज्य के पक्ष कें अभियुक्त/अभियोजन के उपगत व्ययों को चुकाने के लिए 3000 रूपए
के भुगतान का निर्देश देती है और विशेषकर तब जब अभियुक्त को परीवीक्षा पर रिहाया
किया गया हो तो उसे औचित्यपूर्ण नहीं माना जा सकता है।
इसी प्रकार धारा 357-1 के अधीन प्रतिकर के भुगतान का निर्देश जब
अभियुक्त को जुर्माने से दण्डित किया गया हो, अथवा इस
प्रकार जिसका एक भाग जुर्माना भी हो, दण्डित हो। प्रतिकर की
धनराशि को किसी वसूली गई जुर्माने की धनराशि से देने का निर्देश दिया जाना चाहिए?
इस प्रकार प्रतिकर की राशि को/ कभी भी जुर्माने की धनराशि से अधिक
नहीं होना चाहिए। जुर्माने की राशि का परिणाम पुन: उस पुर्नसीमा पर निर्भर करती है
जो कि अपराध विशेष के लिए दण्डादिष्ट की जा सकती है और उसी विस्तार तक निर्भर
करती है जिस तक अत्यंत उदारता के साथ और उपयुक्त किन्ही निबंधनों के अधीन ना
रहते हुए भी की जा सकती है। परंतु यह केवल तभी लागू होता है जब जुर्माने के दण्डादेश
की प्रणिति
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