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शब्द 435
पार्ट 292
समय
10 मिनिट 40 सेंकेंड
इस
धारा का उद्देश्य दोषी व्यक्ति द्वारा अपराध के शिकार व्यक्ति को प्रतिकर देने
तथा अभियोजन में उपगत व्ययों को चुकाने तथा उनकी भर्त्सना करने के लिए समुचित व्यवस्था
करना है। दण्ड न्यायालय का कार्य अपराधी को दण्ड देना और (व्यवहार विषयक सिविल
न्यायालय का कार्य) दोषकर्ता द्वारा विक्षुब्ध पक्षकार को कारित की गई क्षति
अथवा हानि के लिए प्रतिकर दिलवाना है। तथापि यदि इन दोनों प्रक्रियाओं को सम्मिलित
किया जा सकता है उसके फलस्वरूप और
दाण्डिक और व्यवहसर संबंधी आदेशिकाकाए प्रभावित नहीं करती तो ऐसा करना उचित और
स्थकर होगा, क्योकि इससे दो भिन्न न्यायालयों में उपचार प्राप्त करने में समय
और धन दोनो की बचत होगी। धारा 357 इसी लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ती है।
इस धारा के अधीन प्रतिकर का आदेश दिया जा
सकता है, चाहे भले ही अपराध जुर्माने से दण्डनीय हो और जुर्माना दिनांक
23/03/2007 से वास्तविक रूप से लगाया गया हो परंतु ऐसे प्रतिकर का आदेश तभी दिया
जा सकता है जब अभियुक्त को दोष मुक्ति प्रदान की गई हो। उसके विरूद्ध दण्डादेश
पारित किया गया हो। प्रतिकर किसी भी हानि या क्षति के लिए देय हो सकता है, चाहे वह
शारीरिक हो या अर्थ संबंधी प्रतिकर हो? न्यायालय को इस निमित्य क्षति की प्रकृति,
क्षति की प्रणिति की रीति, अभियुक्त की भुगतान क्षमता और अन्य प्रासंगिक हेतुकों
पर ध्यान देना चाहिए।
(गिरधारी विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य के
मुकदमें में) अभिमत व्यक्त किया गया था कि धारा 357 के अधीन प्रतिकर देने के
आदेश के लिए जुर्माने के मूल दण्डोदश की प्रणिति एक अपरिहार्य शर्त है। जुर्माने
के दण्ड की प्रणिति के बिना यदि न्यायालय राज्य के पक्ष कें अभियुक्त/अभियोजन
के उपगत व्ययों को चुकाने के लिए 3000 रूपए के भुगतान का निर्देश देती है और
विशेषकर तब जब अभियुक्त को परीवीक्षा पर रिहाया किया गया हो तो उसे औचित्यपूर्ण
नहीं माना जा सकता है।
इसी प्रकार धारा 357-1 के अधीन प्रतिकर
के भुगतान का निर्देश जब अभियुक्त को जुर्माने से दण्डित किया गया हो, अथवा इस
प्रकार जिसका एक भाग जुर्माना भी हो, दण्डित हो। प्रतिकर की धनराशि को किसी वसूली
गई जुर्माने की धनराशि से देने का निर्देश दिया जाना चाहिए? इस प्रकार प्रतिकर की
राशि को/ कभी भी जुर्माने की धनराशि से अधिक नहीं होना चाहिए। जुर्माने की राशि का
परिणाम पुन: उस पुर्नसीमा पर निर्भर करती है जो कि अपराध विशेष के लिए दण्डादिष्ट
की जा सकती है और उसी विस्तार तक निर्भर करती है जिस तक अत्यंत उदारता के साथ और
उपयुक्त किन्ही निबंधनों के अधीन ना रहते हुए भी की जा सकती है। परंतु यह केवल
तभी लागू होता है जब जुर्माने के दण्डादेश की प्रणिति
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