पार्ट 267
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व्यक्ति
और समाज एक दूसरे के परिपूरक है। व्यक्ति समाज की ईकाई है। इसके विपरीत समाज व्यक्तिओं की
सामूहिकता को दर्शाता है जिस प्रकार सामाजिक विघटन कारण तथा फल दोनों है उसी
प्रकार व्यक्तियक भी सामाजिक विघटन से समाज का संस्थागत नियंत्रण छिन्न भिन्न
हो जाता है और मनुष्य के प्राकृतिक स्वाभाव को इस बात का अवसर देता है कि वह स्वतंत्रता
पूर्वक कार्य करे। फलस्वरूप सामाजिक संस्थाए प्रभावहीन हो जाती है और व्यक्ति
के लिए किसी प्रकार का पथ प्रदर्शन नहीं रहता। इस प्रकार वैयक्तिक विघटन की
सामाजिक विघटन से प्रथक नहीं किया जा सकता। जो शक्यिां सामाजिक विघटन उत्पन्न
करती है वही व्यक्तियक विघटन के लिए भी उत्तरादायी होती है। जब समाज विघटित होता
है, तो व्यक्ति स्वत: विघटित हो जाता है। समाज विघटन से प्रभावित व्यक्ति, अपने
महत्वपूर्ण सामाजिक सम्बंधों से वंचित हो जाते है और निराशा व असुरक्षा की भावना से पीडि़त रहते है।
समाज संबंधों की वह व्यवस्था है जो व्यक्तियों
को कार्य की सामान्य दिशा प्रदान कर उनहें एक सूत्र में बांधे रखता है। सामाजिक
विघटन से यह संबंध टूट जाते है और व्यक्ति सामान्य उद्देश्यों के लिए कार्य
करना बंद कर देता है। व्यक्ति व समाज के संबंधों को स्पष्ट करते हुए रोल्फ
हेमर ने उल्लेख किया है कि ‘समाज के नाटक में व्यक्ति अभिनेता है और उनके संबंध
में वे बंधन है जो उन्हें एक सूत्र में बांधते है। प्रत्येक व्यक्ति उतना ही शक्तिशाली
है जितने की उसके संबंध है क्योंकि कोई व्यक्ति अपने आप में अकेला नहीं रहता
इसलिए सामाजिक विघटन, व्यक्तियों में पारस्परिक संबंधों की विफलता और विच्छेद
कोदर्शाता है परंतु अभिनेता भी इस प्रक्रिया में अनिवार्य रूप से सम्मिलत रहते है’।
राल्फ हेमर के इस उल्लेख से स्पष्ट
है कि विचलित समाज में ही विघटित व्यक्ति पाया जाता है दूसरी शब्दों में सामाजिक
और व्यक्तियक विघटन दोनों साथ साथ विद्यमान रहते है। व्यक्ति का विकास सामाजिक परिवेश में होता है
जब समाज का विघटन होता है तब व्यक्ति स्पष्ट रूप से अपने कार्य और दायित्वों
को नहीं समझ पाता उसका व्यवहार आचरण के मान प्रतिमानों से विचलित हो जाता है।
व्यक्तियक विघटन की दशा में व्यक्ति सामाजिक
मूल्यों, रूढि़यों, परम्पराओं और रीति रिवाजों का उल्लंघन करता है वह समाज के
संस्थागत नियंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता। धीरे धीरे वह पतन की उस अवस्था तक
पहुंच जाता है जिसमें वह अन्य व्यक्तितयेां के हितों के लिए खतरा बन जाता है। व्यक्तियक
विघटन व्यक्ति को अपराध की ओर ढकेलता है यही कारण है कि अपराधी व्यक्तियक दृष्टि
से विघटित होते है इस प्रकार व्यक्तित्व का वह स्वरूप है जिसमें व्यक्ति समाज
के साथ समायोजन नहीं कर पाता और उसका व्यवहार आचरण के प्रचलित नियमों के विपरीत
हो जाता है और व्यक्ति अन्य लोगों के संदर्भ में अपने कार्यों को करने में अस्मर्थ
होता है और इस प्रकार सामाजिक विघटन की प्रतिक्रया को प्रतिपादित करता है।
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