पार्ट-
277
शब्द 480
समय 11 मिनिट
***************
***************
हमारा
संविधान हमें स्वतंत्रता का अधिकार देता है। परंतु जब मृत्यु सैया पर पड़े किसी
व्यक्ति को स्वास्थ सेवा या उपचार देने की बात आती है तब हमारा स्वतंत्रता का
अधिकार एक किनारे कर दिया जाता है कोई भी भी चिकित्सक व्यक्ति की उपचार लेने की
इच्छा या अनिच्छा का आदर ना करते हुए उसे कष्ट दायक एवं कभी कभी तो व्यर्थ की
उपचार प्रक्रिया में झोक देने से परहेज
नहीं करता।
दरअसल, हमारे स्वास्थ्य तंत्र में
किसी मरीज की इच्छा से उसे शांति पूर्वक प्राकृतिक मृत्यु प्रदान करने जैसा कोई
प्रावधान ही नहीं है चिकित्सकों के दिमाग में यही भरा हुआ है कि उनहें हर हालात
में मरीज की जान बचानी है उन्हें अन्य किसी विकल्प को साथ लेकर चलने का
प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता। प्रशिक्षण की ऐसी कमी चिकित्सा विभाग के चिकित्सको
नर्सो परमार्शदाताओं एवं प्रशासकों सभी में देखी जा सकती है। हमारे देश में बहुत
कम अस्पताल ऐसे है, जो शक्ति स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करते है। तकनीक का उपयोग
नि:संदेह अच्छा है एवं लाभ दायक भी है लेकिन जब किसी मरीज की जीवन रक्षा में
महंगी तकनीक भी विफल हो जाती है, तो जनता का अस्पतालों की लूट खसोट की नीति पर
चला जाता है।
वदेशों में स्थिति भिन्न है खासतौर पर
पश्चिमी देशों में जब 1960 के दौरान आईसीयू की शुरूआत हुई तो लोगो में उम्मीद
जगी। वे मानने लगे कि डॉक्टर ही सबसे अच्छा निर्णय ले सकता है इसके पीछे मरीजो के
ठीक होने की दर काम कर रही थी।
इधोनेशिया की बात सबसे पहले अमेरिका में
की गई। इसमे मरीज को अपने जीवन को समाप्त करने के लिए अतिरिक्त चिकित्सा सेवाओं
से इंकार करने का अधिकार दिया गया। सन 1991 में अमेरिकी कांग्रेस ने इससे संबंधित ‘सेल्फ-डिटरमिनेशन
विधेयक’ पारित कर दिया गया। इसेक अंतर्गत मरीज को इच्छा मृत्यु या इधोनेशिया से
संबंधित एडवांस डारेक्टिव के साथ साथ हेल्थ केयर पॉवर आफ अर्टानी का अधिकार दे
दिया। पॉवर आफ अर्टानी के द्वारा मरीज के किसी रिश्तेदार या निकटम व्यक्ति को
उसके जीवन रक्षक उपकरण हटाने का निर्देश देने का अधिकार मिल गया।
कई देशों में एंड आफ लाइफ केयर यानी
एओएलसी का चलन है जैसे ही मरीज को प्राणघातक बीमारी का खतरा बताया जाता है या उम्र
के कारण मृत्यु की संभावनाएं व्यक्त की जाती है उसी समय मरीज के परिजनों एवं
मरीज से जीवन रक्षक उपकरणों के उपयोग पर परामर्श प्रारंभ कर दिया जाता है। ततपश्चात
उन्हें स्वाभाविक मृत्तु तक अवसाद यानी पीड़ा आदि से निपटने में सहायता दी जाती
है। ऐसी कोशिश की जाती है कि मरीज की मृत्यु शांति पूर्वक वातावरण (चाहे अस्पताल
या घर) में हो। ऐसा सब संभव होने के लिए मरीज की लिविंग बिल या जीवन की इच्छा या
अनिच्छा का प्रमाण पत्र ही एक मात्र आधार होता है। भारत में भी ऐसे किसी आधार ही
जरूरत है जो व्यक्ति को जीवन की स्वतंत्रता के साथ एक गरिमापूर्ण एवं शांति
No comments:
Post a Comment