पार्ट – 272
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मध्यमवर्गीय परिवार में 24 अप्रैल 1973 को जन्में सचिन तेदुलकर के पिता
स्वर्गीय रमेश तेदुलकर एक महा विद्यालय में प्राध्यापक थे और मां एक निजी संस्थान
में कार्यरत थी। अपने चारों भाई बहिन में सबसे छोटे सचिन पढ़ाई ेक प्रति बहुत
गंभीर थे यही कारण था कि जब वे दसवीं में थे तो उन्होंने दसवीं की परीक्षा देने
के लिए दिल्ली में होने वाली रणजी ट्राफी खेलने से इंकार कर दिया इनकी पत्नि का
नाम डॉक्टर अंजली तेदुलकर है।
सचिन को अपने जीवन में
अपने सभी भाई बहिनों का भरपूर सहयोग मिला। सबसे अधिक अजीत भैया का सहयोग मिला। सच
पूछो तो महान बल्लेबाज बनाने में उनके भैया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सचिन
जहां पर रहते है वहां पर उन्होंने अपनी उम्र कें लगभग ग्यारह बारह वर्ष के
मित्रों के साथ किक्रेट की एक अच्छी टीम
बना ली थी, और उस टीम के साथ बड़ी उम्र के लड़कों की टीम के साथ किक्रेट खेला करते
थे क्रिकेट के प्रति इतनी रूचि अजीत भैया ने संकल्प लिया कि वे एक ना एक दिन सचिन
को महान खिलाड़ी जरूर बनाएग और हम सभी को पता है कि सचिन आज किस पायदान पर है।
सचिन अपने बचपन के मित्रों से आज भी एक सामान्य व्यक्ति की तरह मिलते है आज के
महान बल्लेबाज की इच्छा टेनिस खिलाड़ी बनने की थी या फिर तेज या सफल गेंद बाज।
सचिन ने 16 वर्ष की आयु में अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में सर्वप्रथम 1989 में पाकिस्तान
के खिलाफ कराची में अपना पहला मैच खेला था । सचिन इतने महान बल्लेबाज बन जाने के
बाद भी अपने वे बचपन के दिन आज भी नहीं भूलते है। सचिन कहते है भाग्य हमेशा बहादुर
और ईमानदार लोगों का साथ देता है।
महिलाओं का योगदान राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी रहा है। स्वतंत्रता के
लिए हुई क्रांति में महिलाओं में सदैव बढ़चढ़कर भाग लिया इसी क्रम में एक नाम है झासी की रानी लक्ष्मीबाई जो हमारे
भारतीय इतिहास की श्रेष्ठ बीरांगना एवं धरोहर है। रानी लक्षमीबाई भारतीय इतिहास
की आदर्श अमर तािा प्रेरक नारी-पात्र है। रानी लक्ष्मीबाई को स्वराज्य प्राप्ति
की प्रेरणा से लड़ने वाली बीर, साहसी और रणकुशल नारी के रूप में देखा जा सकता है।
रानी लक्ष्मीबाई स्वराज्रू प्राप्ति की प्रेरणा से लड़ी स्वराज्य प्राप्ति के
लिए मृत्यु को गले लगया तथा स्वराज्य
प्राप्ति की नीवं का पत्थर बनी। रानी बचपन से असामान्य साहसी, बीर,
संघर्षशील तथा स्वराज्य प्रिय थी। उनको बचपन से ही शस्त्र चलाना, घुडसवारी मल्ल
युद्ध आदि में विशेष रूचि थी। उफनते हुए नाले को पार कर जानो का प्रचण्ड साहस
उनकी सफलता का सशख्त प्रमाण है। वह अंग्रेजों
की सैन्य रचना को अपने घमासान युद्ध से तितर वितर करते हुए बिजली की भांति
निकल जाती थी। उनकी वीरता को देखकर जनरल रोज ने लिखा था कि रानी उन सब में
सर्वाधिक श्रेष्ठ पुरूष है। रानी कर्मयोग की उपासिका थी, इसलिए सन्मार्ग पर चलते
हुए जीना-मरना उनके लिए सहज खेल थे। उनमें
देश के लिए बलिदान होने की अक्षय प्रेरणा थी। रानी रण में चंडिका रूप धारण कर लेती
थी, उनकी तलवार के सामने अंग्रेस सेना टिकती नहीं थी। दोनों हाथ से तलवार लिए जब वह
युद्ध में कुदती थी तो शत्रु दंग होकर देखते रह जाते थे। रानी कुशल सेना संचालिका
थी वह मानव मनोविज्ञान की जानकार थी। रानी से प्रेरणा पाकर मुर्दो में भी जान आ
जाती थी। रानी मनुष्य की पहचान करने में विशेष दक्ष थी। इस युद्ध में रानी को
अनेक घाव लगे जिससे इस वीरांगना का प्राणांत हो गया उस समय उनकी आयु 23 वर्ष थी।
महरानी लक्ष्मीबाई का बलिदान इतिहास में अमर रहेगा।
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