पार्ट 258
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603
Dictation For High
Court, Also for SSC, Court LDC Exam Post 258 With Matter
यदि आप
डाक्टर है और आप अस्थमा के भीषण के अटैक
में आपके रोगी का दम घुट रहा हो तो शरीर में साइड इफेक्ट की परवाह किए बगैर स्टेराईड
पंप करने के अलावा आप क्या करेगे। 70 फीसदी बैंकिंग सरकारी हो या वे दिवालिया
होने के करीब हो तो आप क्या करेंगे? फंड खड़ा करने के लिए बांड जारी करने का
आईडिया चतुराई भरा है। लेकिन अब नकदी से मालामाल अन्य सार्वजनिक उपक्रम जिनमें ज्यादातर
ऊर्जा क्षेत्र की मोनोपॉली है है को यह बांड खरीदने को कहा जायेगा यह विचलित करने
वाली बात है।
हम इतने भी ना समझ नहीं है कि उनसे
इंद्रा गांधी की सबसे खरबा विरासत बैंको के राष्ट्रीकरण को उलटने की मांग करे
लेकिन वे सिर्फ दो सबसे ज्यादा संकट में फसे बैंक बेचने से शुरूआत करके घोषणा कर
सकते थे कि अगले दस साल तक हर साल सबसे खराब बैंलेश शीट वाला बैंक बेच दिया जायेगा
इससे बाजारों में बिजली दौड़ जाती, दूसरे बैंको झटका लगता। वे बेहतर काम करते,
राजनीतिक वर्ग पर वोट खरीदने के लिए कर दाता का चेक देने पर पाबंदी लगती और मोदी
का नाम महान सुधारकों में शामिल होता।
पर क्या मोदी जी बाकई चाहते है कि क्या
उनहे आर्थिक सुधारक के रूप में याद रखा जाए। सार्वजनिक उपक्रमों से वादा करना या
विजनेस में सरकार का होना सुधारक होने की एक मात्र कसौटी नहीं है। लेकिन, यह अहंम
है कोई भारतीय नेता यहां तक कि मनमोहन सिंह, पीवी नरसिंह राव और पी चिदम्बरम
सार्वजनिक उपक्रम बेंचने की हिम्मत नहीं जुटा सका। केवल अटल विहारी बाजपेयी जी का
यह वादा था उनहें सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने रोक दिया। संसद की मंजूरी के बिना
विनिवेश पर इसने रोक लगा दी और तेल के दो दिग्गज कंपनियों एचपीसील और बीपीसीएल की
बिक्री रूक गई। मोदी से उम्मीद थी कि वे अपनी ही पार्टी के प्रेरण-पुरूष का
अनुसरण करते इसकी बजाह वे क्या कर रहे है? वे अपनी ही ओएनजीसी को एचपीसीएल बेच
रहे है एक बार फिर से ही मायलों से व्यापार कर रहा है। वह भी सरकारी धन से।
केच-23 मोदी समर्थकों का कहना ठीक है कि वे आज चुपके से सुधार नहीं किए जा सकते थे
लेकिन जनमत बदलने में मोदी से ज्यादा माहिर कौन है? सवाल है कि वे ऐसा कयों नहीं
कर रहे है वे इसे करना भी चाहते है या नहीं? और यदि नहीं, तो वे चाहते क्या है?
उत्तर हैउनकी राजनीति। वाजपेयी के विपरीत वे प्रतिबद्ध स्वयं सेवक है और उनहीं
तरह पुराने आरएसएस बाले सामाजिक अर्थशास्त्र की नादानी को ठहाकर लगाकर खारिज करने की बजाह इस पर सच्चा
भरोसा है। मोहन भागवत की तरह सच्चा स्वयं सेवक बनने और बाजपेयी की तरह आधुनिक
सुधारक की तरह याद रखे जाने की चाहत के बीच फसकर वे एक और इंद्रा गांधी बन कर रह
जाते है, एक महान साख्किीबविद एक महान आर्थिक राष्ट्रवादी विस्तारवादी और उत्रोत्तर
नियंत्रण बढ़ाती सरकार को चला रहा है। मैं उनकी राजनीतिक- आर्थिक धारणा कुछ ऐसी ही
पाता हूं। सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था चलाने में कुछ गलत नहीं है जब तक कि आप
सरकार बुद्धिमानी और ईमानदारी से चलाते है। आदर्श राज्य की तलाश कभी सफल नहीं हुई
संभावना अब भी नहीं है। मोदी ने अपनी युवावस्था और प्रौण आयु पूर्णकालिक स्वयं
सेवक के रूप में गुजारी है और उसका असर आसानी से नही जायेगा। लेकिन, अब दुनिया से वास्ता विश्व नेताओं से मुलाकात,
सफल अर्थव्यवस्थाओं व समाजों को चलता देखना, उन पर असर डालेगे और वे भी
नवउदारवादी आदर्श गले लगायेंगे। सामाजिक धार्मिक रूढि़वाद और उदारवाद के साथ नहीं
रह सकते। यही वह राजनीति है जहां मोदी का अर्थशास्त्र फस गया है इसे हम क्या नाम
दे? मैं बताता हूं कैच-24 पॉलिटिक्स ।
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