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अकबर पदमसी ने
कुछ हफ्तो पहले हमें दिखाया, जिनकी पेंटिंग, ग्रीक लैण्ड स्केप, नीलामी में 19 करोड़
रूपए की रिकार्ड कीमत में बिकी और उन्होंने अपने से अधिक ख्यात, अधिक सफल समकालीनों को
बहुत पीछे छोड़ दिया। गायतोंडें ने भी यही दिखाया, अपने निधन के वर्षो कें बाद
जीवन में तो उन्हें उपेक्षा ही मिली।
हसैन के सारे
संग्राहक सोच रहे हो कि वे चैक बुक लेकर उनके पीछे क्यों दौडते रहे जब उनके अल्पख्यात
समकालीन आज नीलामी में आज काफी बेहतर प्रदर्शन कर रहे है । '
भारत को जिस चीज की जरूरत
है वह है बढ़ावा देने, संरक्षण देने की संस्कृति ।जो पहले ही सफल हो चुके है उन्हें
संरक्षण नहीं जिनमें संभावना नजर आती है, क्षमता दिखाई देती है। यही वजह है कि आज
इतनी स्टार्पअप कंपनिया इतना अच्छा काम कर रही है, क्योंकि वे जोखिम ले रही है।
वे ऐसे परम्परागत विजनेस में निवेश करने की वजाह, जिसमें हर कोई निवेश कर रहा है।
रोचक आईडिया पर पैसा लगाने की जोखिम ले रही है।
असली उद्यम शीलता के केन्द्र में नये
आईडिया की ही चुनौती है। असली विजेता तो वे है जो उस विचार को समर्थन देने का
जोखिम उठाते है। इसी का निचोड़ तो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कंपनिया हम किसी भी
क्षेत्र में प्रतिभा का विकास करने में इतने भी सुस्त है, फिर चाहे कला क्षेत्र
हो अथवा साहित्य या संगीत का।
पुराने लोग डटे रहते है और सारा ध्यान व
संशाधन खीच लेते है। जबकि नई प्रतिभा के लिए प्रवेश पाना असंभव हो जाता है। यही
कारण है कि ओलम्पिक में हमारा प्रदर्शन इतना खराब है। सच तो यह है कि ज्यादातर
स्पर्धात्मक खेलों में हमारा यही हाल है। असली चुनौती साबित हो चुकी प्रतिभा को
संभारने की नहीं है, बल्कि अज्ञात लोगों में क्षमता खोजने की है। यह अनंत गुना
कठिन काम भी है, क्योंकि इसमें वातानुकूलित रूप में बैठकर यह फैसला करने की तुलना
में बहुत दौड़ भाग करनी पढ़ती है कि किस सफल खिलाड़ी पर कितना खर्च किया जाये।
यह
काम आलसी मुख्यमंत्रियों का है जो ऐसे किसी खिलाड़ी को पुरस्कार में बड़ी धनराशि
देकर गौरवानवित होना चाहते है, जो पहले ही
जीत हासिल कर चुका है। वे भूल जाते है कि जो पराजित हुए है वे अगली वार विजई हो
सकते है, यदि कोई उनमें पर्याप्त रूचि दिखाए और उनके प्रशिक्षण पर पैसा खर्च करे
तो विजेता तो भाग्यशाली होते
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