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सुप्रीम कोट
द्वारा अदालत की मानहानि के मामले में चार पत्रकारों कें खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट
के फैसले पर रोक लगाने के बाद एक बार फिर इस विषय पर चर्चा शुरू हो गई है। इस तरह
देश की सबसे उंची अदालत ने यह संकेत दिया है कि वह अवमानना के मामले में पत्रकारों
को जेल में डालने के लिए बहुत उत्सुक नहीं है। ऐसा रूख यह अदालत पहले भी दिखा
चुकी है।
2001 में अरूदंती राय को एक दिन की सजा दिए जाने के बाद कंटेट से संबधित
प्रावधानों पर बहस भड़क उठी थी। लेकिन इस मामले में भी मेघा पाटकर व अन्य को किसी
अदालत ने आरोप मुकाम किया था। मिड डे मामले में सुप्रीम कोर्ट की यह अनिच्छा और
भी अहम हो जाती है।
आखिरकार जिस मामले का
नोटिस लेकर हाईकोर्ट ने चार मीडियाकर्मी को सजा सुनाई थी वह सुप्रीम कोर्ट से ही
संबंधित था। अब जबकि हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुनवाई की अपील सुप्रीम कोर्ट ने
मंजूर कर ली है, तो हाईकोर्ट के निर्णय के बुनियादी तर्क की भी न्यायिक परीक्षा
होगी। क्योकि चीफ जस्टिस के खिलाफ आरोप लगाना खुद पर खुद यह संकेत करता है कि
सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीश या तो कठपुतली थे या सहायक।
जाहिर है कि इस
तर्क का परीक्षा में वैध साबित होना संदेह के घेरे में है। लेकिन इससे अलग एक और
मुद्दा और है कि अगर इस मामले में अवमानना का कोई मामला बनता ही है तो सुप्रीम
कोर्ट की अवमानना का मामला बनता है, हाईकोर्ट का नहीं। याद रहे कि संविधान की धारा
215 के तहत हाईकोर्ट को अपनी अवमानना के आरोपों की सुनवाई का अधिकार है। इसी प्रकार
सुप्रीम कोर्ट अपनी अवमानना के आरोपों की सुनवाई का भी इंतजाम है। सही तो यह है कि
वे अपने से जुडे मामले खुद
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