337
समय 9
मिनिट 30 सेकेंड
दरअसल
कोर्ट की अवमानना की समुची व्यवस्था ना सिर्फ जनतंत्र बल्कि न्यायिक प्रणाली के
प्राकृतिक नियमों को भी संस्पेंड किए जाने की मांग करती दिखती है। जनतंत्र की
बुनियादी शर्त है कानून के सामने सभी नागरिकों की बराबरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
का अधिकार और उससे निकला मीडिया की स्वतंत्रता का आदर्श कार्यपालिका या विधायिका
के हमलों के खिलाफ जितना रक्षणीय है, उतना ही रक्षणीय न्यायिक दखल से ही क्यों
नहीं होगा। इस भोले विश्वास को चाहे कितना ही बढ़ावा क्यों ना दिया जाये, इसका
कोई आधार नहीं है कि राज्य के अन्य स्तंभों से अलग न्यायपालिका जनतंत्र की स्वाभाविक
पक्षधर है। अवमानना का कानून साफ तौर पर न्यायिक फैसलो की जनतांत्रिक परख के
सामने दीवार खड़ी करता है। इसी प्रकार न्यायिक
प्रणाली की बुनियादी शर्त जो कि अब कॉमनसेंस भी बन चुकी है।
यही है
कि मुदई मुनसिफ और बकील एक ही हो तो इंसाफ नहीं हो सकता। अवमानना से संबंधित व्यवस्था
इस शर्त के खिलाफ जाती है अगर कोर्ट की अवमानना की वयवस्था को पूरी तरह से खत्म
करना मुमकिन ना हो, तब भी उसके दायरे को कम से कम और उसके स्तेमाल को दुर्लभ से
दुर्लभ जरूर बनाया जाना चाहिए। ब्रिटेन अमेरिका आस्ट्रेलिया आदि कई देशों की
जनतांत्रिक व्यवस्था ने बाकायदा ऐसा किया है। खुद हमारे सुप्रीम कोर्ट के मई
2007 के एक फैसले में ऐसे जजों की आलोचना की गई थी जो न्यायपालिका की गरिमा की
रक्षा करने का भार अपने कंधो पर उठाये घूमते है और यह समझते है कि किसी आलोचना या
आरोप घर से तहस महस हो जायेगी। जस्टिस आरबी रविन्द्रन तथा एलएस पांडा ने तो इस सिलसिले
में चेतावनी भी दी थी कि, पिछले कुछ अरसे से लोगों के बीच यह अहसास जड़े जमा रहा
है कि कभी कभी कुछ जज अति संवेदनशीलता दिखा रहे है और यह प्रवित्ति रहती है कि
तकनीकि उल्लंघनों तथा अनजाने में किए गए कामों को भी कंटेम्ट की तरह लिया जाये।
जनतंत्र की परवाह करने वाले लोगो की अवमानना की व्यवस्था की ज्यादा से ज्यादा
सीमित करने का आग्रह
No comments:
Post a Comment