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अमेरिका और ब्रिटेन का पाकिस्तान का चकी और रहमान लखवी को भारत को सौंपने के लिए कहना पश्चिमी देशों की सोच में आगे बढे बदलाव का नतीजा माना जायेगा। वरना अब तक भारत की यही शिकायत थी कि पश्चिमी देश खासकर अमेरिका सिर्फ उन्हीं दहशततगर्जो और जिहादी संगठनों की चिंता करते है, जो उनहें निशाना बनाते है।
पाकिस्तान में अमेरिका की चिंता अलकायदा और तालिबान तक आकर ठहर जाती थी। लस्कर के तोयबा और चेस ए मोहम्मद जैसे भारत को निशाना बनाने वाले या अफगानस्तान में आंतक फैलाने वाले हक्कानी नेटवर्क को लेकर पश्चिमी नजरिए में दोहरापन उभर आता था। इस रूख में हल्का परिवर्तन को लेकर 26/11 के बाद आना शुरू हुआ, जब पाक दशसतगर्जो कें हमले में कई पश्चिमी देशों के नागरिक ही मारे गए फिर भी लश्कर उसकी बदले रूप जमात दावा और चेस पर कार्यवाही के लिए इन देशों को पाकिस्तान पर जिस संजीदगी पर दबाव डालना चाहिए था, वह देखने में नहीं आया।
लेकिन जब जबकि आस्ट्रेलिया से लेकर फ्रांस और अनेक अफ्रीकी देशों पर इस्लामी चरमपंथ का खतरा गहराया है तो वहां सोच संभवत: बदली है। वहां माना जा रहा है कि जिहादी गुटों के बीच फर्क करना आतंक के खिलाफ युद्ध को विफल कर देगा। तो अब पाकिस्तान दबाव में आया है जो दशकों से ऐसे कट्टरपंथी गुटों का अड्डा है लखवी से जुड़े एक मामलें की सुनवाई के दौरान पाकिस्तान की अदालत में यह खुलासा हुआ कि अमेरिका और बिट्रेन में उसे भारत को सौपने को कहा है ताकि मुबंई पर हमलों के मामले में उस पर मुकदमा चल सके।
इसका एक विकल्प उन्होंने यह दिया है कि पाकिस्तान लखवी को उनके हाथ कर दे। ताकि अंतराष्ट्रीय न्यायालय में उसके खिलाफ कार्यवाही हो। यह घटनाक्रम सिद्ध करता है कि अमेरिका और ब्रिटेन पहली नजर में लखवी को मुबंई हमलों में संचालित करने का दोषी मानते है।
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