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इसे
संयोग ही कह सकते है कि उत्तर प्रदेश मे जब चुनाव जब दहलीज पर है तो तीन तलाक के
मामले पर अदालती सुनवाई के बहाने यह मामला चर्चा में आ गया और फिर समान नागरिक
संहिता तक पहुंच गया। इसे चुनाव को देखते हुए भाजपा का धुव्रीकरण का प्रयास माना
गया। फिर अयोध्या में रामायण संग्राहालय की चर्चा चली तो धुव्रीकरण के प्रयास की
आशंका पुष्ट होने लगी। केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री वैंकैया नायडू ने
तर्कपूर्ण ढ़ंग से तीन तलाक के मुद्दे पर दलीले रखकर चर्चा को आगे बढ़ाया तो
मुस्लिम पर्सनल लॉ ने विधि आयोग द्वारा जारी प्रश्नावली का बहिस्कार किया।
उसके
पीछे समान नागरिक सहिता को पिछले दरवाजे से लाने की आशंका भी थी। लेकिन अब उन्हीं
नायडू ने कहा है कि सरकार ऐसी कोई मनसा नहीं है और ना भाजपा तीन तलाक, समान नागरिक
संहिता और राममंदिर जैसे मुद्दों को चुनाव में बुलाने का इरादा रखती है। उन्होंने कहा
कि विकास का एजेडा ही अब पार्टी का अब मुख्य मुद्दा है और उत्तर प्रदेश
का चुनाव भी उसी पर लड़ा जायेगा। उन्होंने दलील यह दी है कि तीन तलाक के मुद्दे
को धार्मिक चश्मे से ना देखा जाये, बल्कि यह तो लैगिंक समानता का संवेदनशील
मुद्दा है। अगर नायडू यह कह रहे है कि
समान नागरिक सहिता व्यापक सहमति का मसला है और इसके बिना इस पर आगे नहीं बढा जा
सकता, तो उनका यह कहना एकदम जायज है।
भारत जैसे व्यापक विविधता वाले देश में इस
तरह के बदलाव आम सहमति के जरिए ही हो सकते है जब जीएटी जैसे समान व्यपारिक कानन
का पूरे देश में लागू करने में इतनी दिक्कते आई और अब भी आ रही है तो व्यक्तिगत
धार्मिक कानूनों में बदलाव तो भावनात्मक मुद्दा
है और जिस पर सार्वजनिक चर्चा के भटकने और साम्प्रदायिक रूप लेने की आशंका अधिक
होती है। दुनिया में बदलाव और आर्थिक उदारता आने के साथ लोगों में बदलाव की तैयारी
तो नजर आने लगी है, वरना इन मुद्दों पर जितनी चर्चा पिछले दिनों हुई है, वैसा
पूर्व में संभव नहीं होता था। लेकिन इस सकारात्मक मनोस्थिति को परिणाम तक ले जाना
है, तो इसे अपनी गति से परिपक्व व फलीभूत होने का मौका देना
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