उपरोक्त
संदर्भ में यह स्पष्ट है कि विक्रय अनुबंध पत्र के पालन हेतु न्यायालय में वाद
प्रस्तुत नहीं किया गया है, बल्कि एक
अवार्ड आदेश के तहत कार्यवाही किए जाने का उल्लेख कर यह बताया गया है कि चैक और
नकद राशि का भुगतान कर दिया गया, लेकिन चैक नम्बर का उललेख नहीं है। कब्जानामा व
अनुबंध पर्याप्त रूप से स्टांपित भी नहीं है। इसके अतिरिक्त आवेदक की भूमि के
संबंध में कोई खसरा पंचशाला आदि नहीं है। यह भी निर्ववादित है कि अन्य द्वारा
निष्पादित विक्रय पत्र के संबंध में सिविल सूट निराकृत हो गया, जिसकी अपील
क्रमांक 214/2015 अभी लंबित है। अन्य ऐसा कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया है
कि उनका बंटवारा होकर अलग-अलग, अमुख-अमुख भाग पर काबिज थे। उल्लेखनीय यह भी है कि
वर्तमान प्रकरण 77/2009 में धारा 34 के तहत आज ही आवेदन पत्र स्वीकार किया गया
है। इन परिस्थितियों में आवेदक आरोपी द्वारा प्रस्तुत आवेदन पत्र स्वीकार किए
जाने योग्य नहीं है। फलस्वरूप आवेदन पत्र धारा 9 मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम
निरस्त किया जाता है।
दिनांक 27.01.2016 को अभियोगी श्रीमति ऋतु
साहु ने अपनी सास ज्येष्ठ,जेठानी, देवर, देवरानी एवं पति उक्त अभियुक्तगण के
विरूद्ध महिला थाना, भोपाल में लिखित शिकायत प्रस्तुत की थी। लिखित शिकायत के
अनुसार दिनांक 18.06.2012 को अभियुक्त विजय कुमार के साथ अभियोगी का विवाह हुआ था
और लगभग पांच लाख रूपए अभियोगी के माता पिता ने खर्च किए थे और दहेज आदि अभियुक्तगण
को दिया था। विवाह के 10-15 दिन बाद ही सभी अभियुक्तगण अभियोगी को अपमानित करने
लगे और उस पर दबाव बनाने लगे कि वह अपने पिता से 5 लाख रूपए लेकर आए। अभियोगी के
साथ दुर्वव्यहवार किया जाता था और उसे खाने व कपड़े के लिए तंग किया जाता था। और
मारपीट की जाती थी। अभियोगी जब गर्भावस्था में आई तब उसकी इच्छा के विरूद्ध गर्भपात
कराया गया । महिला थाने में लिखित शिकायत मिलने के बाद अभियुक्तगण के विरूद्ध अन्य
अपराध के साथ-साथ धारा 498ए एवं 506 भाग-2 भारतीय दण्ड विधान में अपराध पंजीबद्ध
किया गया और पुलिस ने विवेचना पूर्ण होनेके बाद न्यायालय में अभियोग पत्र प्रस्तुत
किया। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अध्याय 7 के अंतर्गत आने वाली धारा 105
पूरी तरह से यह स्पष्ट करती है कि यह धारा रिष्टि को रोकने या आतंकबादी क्रिया
कलापों और अर्न्राष्ट्रीय अपराधों का पूर्ण रूप से सफाया करने के आशय से अंत: स्थापित
की गई है, अन्यथ: संहिता में अध्याय 7 अधिनियमित करने का कोई कारण नहीं था। इस
अध्याय में के उपबंधों का धारा 166 में दिए गए उपबंधों पर अनुपूरक प्रभाव है और
सामान्य अपराधों कें अन्वेषण से इन उपबंधों का कोई लेना देना नहीं है।
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