Friday, 27 April 2018

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 धारा 437 दण्‍ड प्रकिया संहिता में प्रावधान है कि यदि मजिस्‍ट्रेट द्वारा विचारण न्‍यायालय अजमानतीय अपराध के मामले साक्ष्‍य देने के लिए नियत प्रथम तारीख से सात दिन की अवधि के अंदर विचारण पूरा नहीं हो पाता है तथा यदि ऐसा व्‍यक्तिउक्‍त संपूर्ण अवधि के दौरान अभिरक्षा में रहा है, जब तक ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किए जायेगे, मजिस्‍ट्रेट अन्‍यथा निर्देश ना दे, मजिसट्रेट के समाधानप्रद जमानत पर छोड़ दिया जायेगा। उक्‍त धारा के अंतर्गत प्रसतुत आवेदप प्रत्र के विरूद्ध पुनरीक्षण याचिका प्रचलन योग्‍य है। अभिलेख के परिशीलन से स्‍पष्‍ट है कि हस्‍तगत प्रकरण में अभियुक्‍त पर दिनांक 05.08.2017 को धारा 34 मध्‍यप्रदेश आबकारी अधिनियम 1915 के अंतर्गत आरोप लगाया जाकर अभियोजन साक्ष्‍य हेतु नियत किया, लेकिन उक्‍त्‍ दिनांक 05.08.2017 से 2 माह अर्थात 60 दिन दिनांक 05.10.2017 तक अभियोजन साक्ष्‍य पूरी नहीं हो पाई। अभिलेख के परिशीलन से यह भी स्‍पष्‍ट है‍ कि अभ्यिुक्‍त अन्‍नू उर्फ अन्‍ना ने दिनांक 25.05.2017 को 8 पेटियों में भरी हुई अवैध रूप से रखी देशी मशाला मदिरा कुल 72 वल्‍क लीटर जप्‍त हुई थी। ऐसे मामले में अभियुक्‍त को तब तक जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकता। जब तक कि न्‍यायालय को यह समाधान ना हो जाये कि अभियुक्‍त ने अपराध नहीं किया है अथवा आगे भी वह ऐसा नहीं करेगा। यह भी अविवादित है कि माननीय उच्‍च न्‍यायालय द्वारा दिए गए उक्‍त आदेश के प्राप्‍त होने पर अपर सत्र न्‍यायालय ने तदनुसार कार्यवाही करते हुए पुनरीक्षकर्ता अभियुक्‍त राहुल तथा अन्‍य अभियुक्‍त धारासिंग पर धारा 147, 452, 325 विकल्‍प में धारा 325 तथा 506 भाग-2 भारतीय दण्‍ड संहिता के अंतर्गत आरोप विरचित कर यह प्रकरण अन्‍यन्‍यत: सत्र न्‍यायालय द्वारा विचारण योग्‍य ना पाते हुए इसे संबंधित की ओर प्रतिप्रेषित कर विधि अनुसार कार्यवाही करने का आदेश दिया था। जिस पर से न्‍यायिक मजिस्‍ट्रेट प्रथम श्रेणी ने उक्‍त अभ्यिुक्‍तगण के विरूद्ध अपर सत्र न्‍यायाधीश के आदेश अनुसार आरोप लगाते हुए विचारण शुरू किया था।
      उभय पक्ष के तर्को पर विचार किया गया। पुनरीक्षण का वैधानिक अधिकार नहीं है जिसमें विधि या तथ्‍यो कें प्रश्‍न पर निराकरण की मांग  की जा सके। आपराधिक स्थिति में आदेश में हस्‍तक्षेप किया जा सकता है। इस संबंध में माननीय मध्‍यप्रदेश उच्‍च न्‍यायालय द्वारा गोपाल बनाम कन्‍हैया लाल 1984 एंव श्री अंशदास हिंदी विद्यापीठ बनाम नारायण दास 1986 में मार्गदर्शी सिद्धांत प्रतिपादित किए गए है जब जिस आलोचय आदेश के संबंध में तर्क किया गया है वह आदेश पुनरीक्षण योग्‍य है या नहीं। इस पर सर्वप्रथम विचार किया जाना आवश्‍यक होगा।
      अंतवर्ती आदेश के विरूद्ध पुनरीक्षण प्रचलन योग्‍य नहीं होता। जमानत के संदर्भ में जमानत देना है या नहीं देना या जमानत आदेश में कोई शर्त लगाना आदि के संबंध में आदेश अंतवर्ती होता है । इस संबंध में न्‍यायदृष्‍टांत पवन विरूद्ध हरभजन सिंह 2012 में मार्गदर्शी सिद्धांत प्रतिपादित किए गए है।

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