60 WPM Shorthand Hindi Dictation Part 231 for High Court Steno, SSC, CRPF Exam With matter
पार्ट 31
शब्द – 580
समय 9 मिनिट 30 सेंकेंड
दण्ड का
अभिप्राय उस कष्ट या पीड़ा से जिसे विधि के प्रावधानों के अनुसार न्यायिक निर्णय
द्वारा उस व्यक्ति को दिया जाता है जिसे अपराधी घोषित किया गया हो। अपराधी के
प्रति इस दण्डात्मक प्रतिक्रिया के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों के निर्धारण के विषय
में अनेक प्रकार के विचार दण्डशास्त्र में प्रचलित है इन्हें हम दण्ड के
सिद्धांत कहते है इनमें निम्न चार प्रमुख सिद्धांत है प्रतिकारात्मक सिद्धांत
अवरोधात्मक सिद्धांत निरोधात्मक सिंद्धांत सुधारात्मक सिद्धांत। प्रतिकारात्मक
सिद्धांत के अनुसार अपराधी को उसके द्वारा पहुचायी गई क्षति के बदले में अवश्य
दण्डित किया जाना चाहिए। सर्वप्रथम हम मूर्ति की संहिता में यह निरूपण किया गया
है कि आंख के बदले आंख और दांत केबदले दांत इस नियम के अनुसार जेसे को तैसा का वि
चार प्रचलित हुआ। इस सिद्धांत केअनुसार अपराधी को राज्य द्वारा अपनी सामूहिक
क्षमता में दिया गया दण्ड किसी व्यक्ति की ओर से किया गया प्रतिकार या प्रतिशोध
का कार्य है। अपराधी का कार्य एक ऐसी विपदा है जिसका वह स्वयं भी हिस्सेदार है।
यह सिद्धांत नैतिक न्याय की पूर्ति पर आधारित है। इसके अनुसार अच्छे कार्य के
लिए पुरूस्कार और बुरे कार्य के लिए दण्ड मिलना चाहिए। किसी प्रोफेसर के अनुसर
मेकेनजी का विचार है कि अपराधी जब यह देखता है कि दण्ड उसके अपराधी कृत्य का
प्राकृतिक फल है तो वह अपराध से घृणा करने लगता है। हीकल का मत है कि प्रतिकार
अपराध को उसी अपराधी की ओर मोड़ना है। अपराधी के कार्य स्वयं अपना न्याय करते
है। इस प्रकार राज्य द्वारा दिया जाने वाला दण्ड अपराध का प्रतिकार अथवा प्रतिशोध
है। इस संबंध में सर जेम्स स्टीफेन ने यह उल्लेख किया है कि ‘’दोष के निमित्त
का अपराध प्रक्रिया का निर्माण हुआ है ‘’जिस प्रकार के अनुराग के निमित्य विवाह
अर्थात मनुष्य के भावी आवेग के लिए कानूनी प्रावधान है संक्षेप में प्रतिकारात्मक
सिद्धांत की बातें निम्न प्रकार है। राज्य द्वारा अपराधी को उसकी प्रतिकारात्मकता
भावना के कारण दण्ड दिया जाता है। अपराधी को दण्ड प्रदान कर राज्य विधि के उल्लघंन
के प्रति अस्वीकृति प्रदान करता है अपराधी को दण्ड प्रदान कर राज्य विधि के उल्लंघन
के प्रति अस्वीकृति प्रदान करता है अपराधी को यदि दण्ड नहीं दिया जाये तो विधि
की महत्वता समाप्त हो जायेगी। अपराधी को दण्ड दिये बिना अपराधों की रोकथाम नहीं
होगी। प्रतिकारात्मक सिद्धांत की अलोचना में निम्न आधारों पर की जाती है। यह
सिद्धांत प्रतिशोध पर आधारित उन सामाजिक परिस्थितियों की अवहेलना करता है जो अपराध
के लिए उत्तरदायी हेाती है। यह सिद्धांत सभी प्रकार के अपराधों के लिए उपयागी
नहीं है यह अपराधी की मानसिक व भावात्मक प्रवित्यिों पर ध्यान नहीं देता। यह सिद्धांत बदले की
भावना पर आधारित है इसमे अपराधी को सुधार का अवसर नहीं मिलता। दण्ड के अवरोधात्मक
सिंद्धांत के अनुसार जो लोग दण्ड की सामाजिक उपयोगिता में विश्वास करते है उनकी
मान्यता है कि दण्ड अन्य लोगों को अपराधिक कार्यों को करने से रोकता है दण्ड
द्वारा अपराधी भविष्य में अपराध की पुनरावृत्ति का साहस नहीं करता। दूसरी ओर अन्य
लोग अपराधिक कृत्यों से हतोत्साहित होते
है। रूसों के अनुसार कानून की मूल्य इस बात से आंकना चाहिए कि उसने कितनी अपराधो
को होने से रोका ना कि इस बात से उसने कितने अपराधों को दण्डित किया। मनुष्मृति
के अनुसार दण्ड के भय से संसार न्याय पथ से ही विचलित नहीं होता। सुखवादी
विचारधारा पर आधारित इस सिद्धांत की मान्यता है कि मनुष्य कोई भी कार्य सुखदुख
के आकलन के आधार पर करता है। वह उसे कार्य को करता है जिसमें उसे दुख की अपेक्षा
सुख की आशा रहती है।